हाल में स्वराज्य पत्रिका में अरविन्दन नीलकन्दन ने अपने लेख में आर.एस.एस. प्रमुख मोहनराव भागवत की ‘‘समान डी.एन.ए.’’ वाली टिप्पणी में हिन्दुत्व भावना होने का दावा किया। लेकिन विचित्र यह है कि इस के पक्ष में उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया। मुख्यतः उन्होंने उस टिप्पणी के आलोचकों की निंदा भर की।
जैसे, यह कहा कि कुछ लोग ‘‘गोयल-एल्स्ट रोग’’ के शिकार हो गए हैं। लेकिन यह कहने के बाद उन्होंने हिन्दू समाज को जगाने के लिए सीताराम गोयल और कूनराड एल्स्ट की भूरि-भूरि प्रशंसा की। फिर कहा कि कुछ लोगों ने उन दोनों मनीषियों द्वारा संघ की आलोचना भर उठा लिया है। अरविन्दन भूल गए कि दोनों मनीषियों के लिए हिन्दू समाज को जगाना और संघ की आलोचना एक ही कार्य के अविभाज्य अंग रहे। उन्होंने इसी बात के लिए संघ की आलोचना की कि यह भ्रामक विचारों और गलत कामों से हिन्दू समाज की हानि कर रहा है।
फिर, अरविन्दन ने यह भी नहीं दिखाया कि ‘गोयल-एल्स्ट रोग’ के शिकार कौन हैं जो हिन्दू समाज को जगाने के कामों के बिना केवल संघ की आलोचना करते हैं? इस के बदले उन्होंने गाजियाबाद डासना मंदिर के पुजारी यति नरसिंहानन्द का बयान उद्धृत किया। कायदे से, अरविन्दन को गोयल-एल्स्ट द्वारा की गई संघ-आलोचना को उद्धृत कर खंडन करना था, जिन्हें ‘रोग’ का जनक बताया। वरना, यदि गोयल-एल्स्ट की आलोचनाएं सही हैं, तो उसे अपनाने वाले हिन्दू ‘रोगी’ कैसे हुए? उन्हें ‘की-बोर्ड वारियर्स’ कहकर छोटा करने की कोशिश के सिवा लेख में कुछ नहीं, कि ऐसे हिन्दुओं द्वारा संघ की कौन सी आलोचना गलत है।
अरविन्दन ने एल्स्ट को मिलते नाहक लांछन का भी उल्लेख किया। पर सीताराम गोयल को तो संघ नेताओं ने ही लंबे समय तक विविध अपशब्द कह-कह कर लांछित किया था। तब हिन्दू समाज की महान सेवा करने वाले मनीषी को झूठे लांछित करके समाज की ही हानि की। आज तक संघ ने उस की क्षमा नहीं माँगी! उलटे, संघ-सत्ताधारी नियमित रूप से हिन्दू समाज को चोट पहुँचाने वाले शहाबुद्दीनों, सेनों, सरदेसाइयों, नैयरों, वहीदुद्दीनों, जिहाद-समर्थकों को ही बारं-बार सम्मानित-पुरस्कृत करते हैं। यह भी गोयल-एल्स्ट से अधिक हिन्दू समाज की हानि करना है! इस प्रकार, ऐसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हिन्दू-विरोधी कामों के लिए संघ की आलोचना करना सचेत हिन्दुओं का अनिवार्य कर्तव्य है!
इस आलोचना के स्वरूप को अरविन्दन ने झपलाने की कोशिश की है। भागवत जी की आलोचना ‘‘हिन्दुओं मुसलमानों का डी.एन.ए. एक’’ कहने के लिए नहीं, बल्कि ऐसी निरर्थक बातों से इस्लामी समस्या को सुलझा लेने के दावे पर हुई है। डीएनए ही क्यों, हमारी राष्ट्रीयता, नागरिकता, रंग-रूप, बोली, आदि भी समान हैं। इस से किस ने इंकार किया? मगर यह बातें ऐसे दुहराना, मानो इसे मुसलमान नहीं जानते, एक बचकानी गतिविधि है।
मजे की बात है कि फिर भी संघ के मुस्लिम मित्रों में कोई उसे नहीं दुहराता! उन ख्वाजा इफ्तिखार अहमद ने भी नहीं, जिन की पुस्तक का विमोचन करते हुए भागवत जी ने वह बयान दिया था! यानी, संघ नेता अपनी ही बात पर खुद फिदा हैं। जिसे खुश करने के लिए कहा, वह तो ठस निर्विकार है।
यह भी अरविन्दन ने निराधार दावा किया कि संघ नेताओं द्वारा वैसे बयान ‘ताकत की स्थिति’ से दिए गए। यह चोर की दाढ़ी में तिनके जैसी बात हुई। संघ नेताओ को स्वयं अपने एकतरफा प्रेम से झलकती कमजोरी का अहसास है। असुविधाजनक सचाई से बचना ताकत की नहीं, कमजोरी की पहचान होती है। फिर, उन की ‘ताकत की स्थिति’ का प्रमाण तो जम्मू, बंगाल, पूर्णिया, केरल तक बार-बार दिख रहा है। बल्कि डी.एन.ए. वाले बयान के अगले दिन मुस्लिम नेताओं ने भागवत जी का मजाक उड़ाया, जिस पर संघ नेता चुप रहे। विरोधी की चुनौतियों पर सैदव चुप रह जाना शायद ही ताकत का संकेत होता है।
अरविन्दन का कथन कि ‘जैविक शुद्धता नहीं होती’, और यहाँ के मुसलमान ‘हिन्दुओं से धर्मांतरित लोग’ हैं, जानी-मानी, किन्तु अप्रासंगिक बातें हैं। ये बातें मुसलमान भी जानते हैं। दुनिया के सारे मुसलमान कन्वर्ट हैं। खुद प्रोफेट मुहम्मद ने अपने ही कुरैश पगानों को कन्वर्ट ही कराया था। जो कन्वर्ट नहीं हुए, उन्हें मार डाला – समस्या यह थी, और है। यानी परिवार के लोगों को भी मारा जा सकता है, यदि इस्लाम न कबूलें। यह इस्लामी सिद्धांत-व्यवहार है। चुनौती यह है।
कुरान (9-23,24) में साफ हुक्म, और धमकी है, ‘‘ओ मुसलमानों! अपने बाप या भाई को भी गैर समझो, अगर वे अल्लाह पर ईमान के बजाए कुफ्र पसंद करें। तुम्हारे बाप, भाई, बीवी, सगे-संबंधी, संपत्ति, व्यापार, घर – अगर ये तुम्हें अल्लाह और उन के प्रोफेट, तथा अल्लाह के लिए जिहाद लड़ने से ज्यादा प्यारे हों, तो बस इंतजार करो अल्लाह तुम्हारा हिसाब करेगा।’’ यही बात (58-22) में भी दुहराई है, कि किसी मुसलमान के लिए बाप, बेटा, भाई भी सदभाव के दायरे से बाहर है, यदि वे इस्लाम न मानें।
अरविन्दन के लेख में ‘इस्लाम समानतावादी मजहब कहा गया है’ का उल्लेख झूठी वामपंथी दलीलों को बेकार प्रचार देना है। सदियों से कोई हिन्दू यह नहीं मानता था। यह सब महात्मा गाँधी से शुरू हुआ, जिन्हें खुद संघ-परिवार अब पूजने पर तुला हुआ है। वह भी हिन्दुओं के टैक्स के करोडों रूपए सालाना बर्बाद करके! जबकि उन्हीं बातों के लिए पहले संघ-परिवार गाँधीजी को दशकों कोसता रहा। क्या ऐसी अवसरवादी पलटी मारने की आलोचना करना अनुचित है?
फिर, मुसलमानों की तरफ ‘हाथ बढ़ाने’ की दलील दी गई है। मगर, इस में कमी कब रही थी? आखिर गाँधीजी ने पूरे जीवन और क्या किया! जैसा गाँधीजी के एक समकालीन विद्वान ने लिखा भी कि, गाँधीजी मुसलमानों के लिए ही जिए और उन के लिए ही मरे भी। आगे भी, पूरी कांग्रेस, और हर तरह के सेक्यूलर-वामपंथी दल भी वही तो करते रहें हैं! इसलिए, मुसलमानों के प्रति ‘रीचिंग आउट’ की बातें वास्तविकता की झूठी प्रस्तुति, या जानबूझ कर आत्म-प्रवंचना है।
अच्छा है कि अरविन्दन ने संघ-भाजपा के ‘हिन्दुत्वा’ को हिन्दू धर्म-समाज से अलग रखा है। संघ-परिवार के लिए ‘हिन्दुत्ववादी’ विशेषण मीडिया में चला, और लालकृष्ण अडवाणी ने इसे अपना भी लिया। पर याद रहे, मुसलमानों को ‘दूसरे दर्जे के नागरिक’ रखने (जिन्हें ‘वोट का अधिकार नहीं होना चाहिए’) का विचार स्वयं संघ के ही एक विगत प्रमुख का था। सामान्य हिन्दू समाज ने ऐसी कोई बात नहीं कही। तब, अरविन्दन उस का उल्लेख करके किसे लांछित कर रहे हैं?
फिर, वे मुसलमानों को ‘एकाधिकारी विस्तारवाद द्वारा शोषित’ होने बात लिखते हैं। मगर चुप कि वह विस्तारवादी है कौन? दरअसल, इस्लाम के सिवा मुसलमानों को उस के लिए कोई प्रेरित नहीं करता। पर अरविन्दन या संघ-भाजपा इस्लाम की साम्राज्यवादी घोषणाओं का उल्लेख नहीं करते। जबकि इसी बिन्दु पर उँगली रखने वालों को ‘गोयल-एल्स्ट रोग’ का शिकार बताते हैं – यह कैसी मनोरंजक विडंबना है!
अरविन्दन के अनुसार, संघ-परिवार मुसलमानों को भारत की ‘सांस्कृतिक-आध्यात्मिक विरासत’ में हिस्सा लेने के लिए कहता है। कि ‘राम, कृष्ण, उपनिषद, गीता, योग आदि मुस्लिम भारतीय की भी विरासत’ हैं। पर क्या मुस्लिम नेताओं ने यह कभी चाहा भी? यह तो मान न मान, मैं तेरा मेहमान वाली बात हुई! मुसलमानों को क्या चाहिए, यह उन के नेता सैकड़ों सालों से आज तक साफ-साफ कह रहे हैं – निजामे मुस्तफा, पूरे भारत को मुहम्मदी शासन में लाना। देवबंदी और कितने ही भारतीय मौलानाओं ने योगाभ्यास तक को हराम कहकर मुसलमानों को उस से दूर रहने की ताकीद की है। तब, खुद मुस्लिम नेताओं की दो-टूक बातों से नजरें बचाकर अपनी काल्पनिक वैचारिक कसरतों का क्या मतलब है? इस से केवल बेचारे अबोध, युवा हिन्दू भ्रमित होते हैं।
जैसे, यह कहना कि ‘आर.एस.एस. की सुबह की प्रार्थनाओं में कबीर और रसखान का नाम लिया जाता है’। यह पुनः अपनी बात पर खुद मोहित होने का उदाहरण है। संघ नेता नजरअंदाज करते हैं कि ऐसे मुसलमानों को काफिर कहकर मुस्लिम नेता घृणा और उपेक्षित करते हैं। किस मदरसे या इस्लामी सेमिनरी में कबीर, रसखान पढ़ाया जाता है? फिर, क्या आर.एस.एस. की प्रार्थनाओं में रसखान का नाम लेना गाँधीजी के ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ से बढ़कर है? उस का फल क्या हुआ? नोआखाली में मुसलमानों ने गाँधी को धमकी दी कि खबरदार जो कुरान का नाम किया! तब गाँधी भाग के बिहार चले आए, जब कि जाते हुए कहा था (6 नवंबर 1946) कि तब तक नहीं लौटेंगे जब तक नोआखाली में शान्ति नहीं होगी। अतः ऐसे आत्म-प्रवंचक नाटकों से इस्लामी समाज को बहलाना अपने को बेवकूफ बनाना है।
इसी तरह, किसी मुस्लिम संत के मजारों को हिन्दू भी पूजते हैं, यह हिन्दुओं के धोखा खाने, अपने धर्म की मूल चेतना से भटक कर यांत्रिक नकल का उदाहरण अधिक है। यह गौरव के बदले चिन्ता की बात है। अरविन्दन द्वारा इस चिन्ता को ‘मूर्खता’ कहना भी सचेत हिन्दुओं को लांछित करना ही है।
सब से विचित्र बात अरविन्दन ने यह लिखी कि, ‘‘मोहन भागवत जी ने मुसलमानों और हिन्दुओं से मजहबी सिद्धांतों के कृत्रिम दुराग्रहों और सीमाओं से मुक्त होने का आहवान किया है।’’ यह कथन शरीयत के बारे में लेखक की शून्य जानकारी का संकेत है। अतः धर्म-अधर्म समभाव का भी उदाहरण है। उन्हें बताना चाहिए कि इस्लाम और हिन्दू धर्म के ‘कृत्रिम दुराग्रह और सीमाएं’ क्या-क्या हैं? इस्लामी सिद्धांत के काफिर, जिहाद, जजिया, धिम्मी, शरीयत, मुलहिद, और सुन्ना के समरूप हिन्दू धर्म-सिद्धांतों में कौन से कौन से दुराग्रह और सीमाएं हैं? यह बताए बिना दोनों को एक झाड़ू से हाँकना लज्जाजनक आत्म-प्रवंचना है।
अरविन्दन के अनुसार, भागवत जी हिन्दुओं और मुसलमानों में समान तत्वों, ‘कॉमननेस’ के आधार पर साथ आने के लिए कह रहे हैं। पर जरा सोचें कि उस की तुलना में क्या कांग्रेस-भाजपा में अत्यधिक ‘कॉमननेस’ नहीं है? गाँधी-पूजा से लेकर देशभक्ति, सेक्यूलरिज्म और विकास तक? फिर क्यों आर.एस.एस. उस के पीछे पड़ा रहा? अनन्त विजय की चर्चित पुस्तक अमेठी संग्राम (पृ. 63-86) से जायजा ले सकते हैं कि संघ कैसी एकाग्रता से कांग्रेस को पीटने में लगा रहा है। ‘समान त्तत्वों’ पर ऐसा दोहरापन क्यों?
मुसलमानों की स्थिति पर दया करते हुए लेखक उन्हें ‘घेट्टो में अलग रहने वाला’ बताते हैं। इस प्रकार, पुनः दिखाते हैं कि उन्हें शरीयत या सुन्ना की बिलकुल जानकारी नहीं। वरना, मुसलमानों का अलग रहना न केवल मजहबी सिद्धांत है, बल्कि वे किसी संकुचित घेट्टो में रहने के बजाए सालों-साल हिन्दू जमीन, मील-दर-मील, कब्जा करते जा रहे हैं। असली घेट्टो में तो हिन्दू शरणार्थी रह रहे हैं – कश्मीर से बंगाल, केरल से कैराना और मिजोरम तक से मार भगाए गए। बिना दूरबीन भी यह दिखता रहा है।
लेखक ने ‘राजनीतिक इस्लाम के फंडामेंटलिस्ट नेतृत्व’ का उल्लेख नकारात्मक भाव से किया। बिना बताए कि फंडामेंटलिस्ट होने में बुरा क्या है, भला? आखिर अपने सिद्धांत की ‘मूलभूत बातों’ पर चलना तो वरेण्य काम है, जब तक कि आप उस सिद्धांत के मूल सिद्धांतों को ही हानिकारक नहीं बताते। वरना यह अनर्गल मुहावरा है, जिस से कुछ संप्रेषित नहीं होता।
आगे वे यह भी कहते हैं कि ‘मुसलमानों को मुक्त होने के लिए कहना उन का तुष्टीकरण नहीं’। इस में लेखक दोहरा मिथ्याचार कर रहे हैं। तुष्टीकरण तो संघ-परिवार के सत्ताधारियों के उन कामों को कहा जाता है, जो बरसों से हजारों करोड़ रूपय़ों के विशेष, नियमित अनुदान, संस्थान, विश्वविद्यालय, छात्रवृत्तियाँ, आदि केवल मुसलमानों को लक्ष्य करके दे रहे हैं। यहाँ तक कि अब आर.एस.एस. स्वयं अपनी ओर से ‘‘मुस्लिम विधवाओं को पेँशन’’ देने की योजना चला रहा है।
दूसरी ओर, मुक्त होने से पहले यह तो बताएं कि मुसलमान किस कैद में हैं? जब कैद की पहचान गुम रखेंगे, तो मुक्ति, ‘लिबरेशन’ किस से? आम मुसलमान कभी किन्हीं मुस्लिम नेताओं का नाम तक नहीं लेते, संघ-भाजपा की तरह नेताओं की ‘भक्ति’ करना तो दूर रहा! वे तो केवल और केवल इस्लाम, मुहम्मद, और कुरान का नाम लेते हैं – क्या संघ-परिवार के नेताओं को उन के राजनीतिक माँग-पत्रों को पढ़ने के लिए आँखें या उन के नारों को सुनने के लिए कान नहीं हैं? उस पर उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा। न लिखा। न अपने कार्यकर्ताओं को शिक्षित किया।
यह भी घोर मिथ्याचार है कि अरविन्दन हिन्दू लेखकों, पत्रकारों द्वारा स्वतंत्र रूप से सीताराम गोयल और राम स्वरूप पर चल रहे विमर्शों का श्रेय ‘राजनीतिक वातावरण में आए बदलाव’ को देते हैं। वे घोड़े के आगे गाड़ी को लगा रहे हैं। वस्तुतः इस वातावरण बनने का लाभ संघ-परिवार को मिला। उन्होंने तो सदैव, सेक्यूलर-लिबरल रूख रखा है। कांग्रेस के अल्पसंख्यक-तुष्टिकरण कामों के विरुद्ध कभी कोई अभियान नहीं चलाया। अतः आज ये छिट-पुट हिन्दू विमर्श नए मीडिया द्वारा सस्ता साधन उपलब्ध कराने से हो रहा है। वरना, संघ-परिवांर ने तो सीताराम गोयल व राम स्वरूप को तहखाने में दफन रखने का पूरा उपाय किया था। उस के दर्जनों फाउंडेशन, थिंक-टैंक, शैक्षिक न्यास, सरकार या नेताओं में किस ने सीताराम गोयल पर गोष्ठी की, या कभी श्रंद्धांजलि भी दी? यहाँ तक कि राम स्वरूप और सीताराम गोयल की जन्म-शताब्दी पर एक औपचारिक बयान, ट्वीट तक नहीं आया! अतः उन्हीं नेताओं, संगठनों को इन स्वतंत्र विमर्शों का श्रेय देना निर्लज्जता की पराकाष्ठा होगी।
भारत के राजनीतिक वातावरण में बदलाव देशी-विदेशी घटनाक्रम में बढ़ते इस्लामी घटनाओं, दबदबे की प्रतिक्रिया और यहाँ राजनीतिक दलों के संयोग-दुर्योग भी हैं। संघ-भाजपा ने इस का फायदा जरूर उठाया, किन्तु इस में दो कौड़ी का भी योगदान नहीं किया। उन का पूरा रिकॉर्ड जीरो है। राम मंदिर वगैरह भी उन के लिए चुनावी प्रचार के मुद्दे से अधिक कुछ नहीं रहे, जो उन के नेताओं ने भी उसे ‘एनकैश्ड चेक’ कह कर मजे से स्वीकार किया था। सो, जिन गंभीर मुद्दों पर सीताराम गोयल और उन के वॉयस ऑफ इंडिया ने दशकों से हिन्दू समाज को जगाया, उस पर संघ परिवार का एक भी अभियान या प्रकाशन नहीं है, जिसे वे दिखा सकें। उलटे, वे इस्लाम की थोक-चापसूली में लगे रहे हैं। यह उन के अपने सचेत कार्यकर्ता मानते हैं। सीताराम गोयल की “ह्विदर संघ परिवार…” (1997) में इस के दर्जनों उदाहरण हैं।
आर.एस.एस. के ‘लाखों-लाख अनाम स्वयंसेवकों’ को इस बदले वातावरण का श्रेय देने से पहले लेखक यह भी बताएं कि वे लाखों-लाख हैं – इस का प्रमाण क्या है? कहाँ है उन की सूची, कोई रिकॉर्ड? कल्पना कीजिए, कोई कहे कि वे स्वयंसेवक कुल मिलाकर बीस हजार मात्र हैं – बाकी केवल संघ का अपना बढ़ाया-चढ़ाया दावा – तो इस का खंडन करने के लिए अरविन्दन के पास क्या है?
उसी तरह, स्वयंसेवकों का रेलवे स्टेशनों पर सोना, साइकिल से चलना आदि, तो ऐसे हाल असंख्य कम्युनिस्टों और तबलीगियों, जिहादियों के भी रहे हैं। क्या इसी से उन के काम और विचार सराहनीय हो गए? फिर, इन दावों से लेख के शीर्षक का संबंध है? संघ के कार्यकर्ताओं के बलिदान और आँसुओं की बातें उन के नेता-प्रचारक स्वयं कहते हैं, जैसा कि सारे कम्युनिस्ट, इस्लामी, तबलीगी, संगठन भी अपने कार्यकर्ताओं के बारे में कहते हैं। उस से कुछ सिद्ध नहीं होता।
फिर, संघ स्वयंसेवकों द्वारा सवेरे गाँधी, अंबेदकर, सावरकर, शिवाजी, आदि के नाम लेना भी एक दलील जैसा रखा गया है। लेखक भूल गए कि कांग्रेसी तो पीढ़ियों से गाँधी का नाम जपते रहे, और आज भी जपते हैं। जबकि आर.एस.एस. ने पचासो वर्ष तक गाँधी को ‘मुसलमानों का एजेंट’, आदि कह-कह कर निंदित किया। इस ने कब गाँधी को अपने प्रातः-स्मरण में जोड़ा, कब निंदा छोड़ी – क्या इस के बारे में लेखक कुछ बता सकते हैं? दूसरी ओर, संघ सत्ताधारियों ने शिवाजी या सावरकर की किसी नीति या सीख को कभी लागू नहीं किया। यह तो महापुरुषों के नामों का यांत्रिक जाप या दुरुपयोग करना ही हुआ।
अंततः अरविन्दन असली बात पर आते हैं, कि ‘संघ के आलोचकों’ में हवाई जोश, ‘थ्रिल ऑफ एड्रीनलीन’ है, जो उन में संघ के प्रति ‘घृणा’ से आता है। इन्हीं आलोचकों को लेखक ने ‘गोयल-एलस्ट रोग’, (‘गोयल-एल्स्ट सिंड्रोम’) का रोगी बताया है। क्या अरविन्दन को सीताराम गोयल और कूनराड के लेखन में कोई रुग्ण भावना मिली है? या उन के अनेक सहयोगियों, पाठकों, जैसे प्रो. के. एस. लाल, श्रीकान्त तलाघेरी, आभास चटर्जी, अरूण शौरी, सुभाष काक, वीरेन्द्र पारीख, आदि में? कैसी विचित्र बात कि इस ‘रोग’, और रोगियों पर पूरे दो पाराग्राफ देकर भी अरविन्दन ने भागवत जी की तुलना में एक मंदिर के पुजारी की बात रखी। क्यों?
आखिर, भागवत जी और संघ-नेताओं की सब से व्यवस्थित आलोचना करने का काम तो कूनराड और सीताराम गोयल ने ही किया। जिन दोनों की लेखक ने सराहना की। तब उन के ‘रोगी’ अनुयायियों, ‘की-बोर्ड वारियर्स’, या किसी पुजारी पर व्यंग्य कसने के बदले अरविन्दन को कूनराड या सीताराम जी की किसी बात को सामने रखकर दिखाना था कि भागवत जी की बातें कहाँ ठहरती हैं?
यह अन्य बात है, कि सीताराम गोयल को भी संघ-परिवार ने ही लाँछित किया था। उन्हें दशकों तक ‘अमेरिकी एजेंट’, ‘हिन्दू समाज का ठेकेदार’, ‘नेहरू के बारे में बकवास लिखने वाला’, आदि कहकर अपमानित किया था। अतः विचित्र है कि अरविन्दन सीताराम जी और एल्स्ट की प्रशंसा, और साथ ही उन के प्रशंसकों को ‘गोयल-एलस्ट रोग’ के रोगी बता रहे हैं।
उन्होंने कुछ बातें हिन्दू धर्म पर भी कही। जैसे, हिन्दू धर्म में ‘आध्यात्मिक विविधता’ है। जबकि यह हिन्दू धर्म की मूल बात है ही नहीं। यह राजनीतिक लफ्फाजी अधिक है, जो गाँधीजी से शुरू हुई, जिस से हानि के सिवा कुछ मिला भी नहीं। सारी रामायण, महाभारत, या उपनिषद में ऐसी कोई बात नहीं मिलेगी। विविधता हिन्दुओं के लोकाचार, और भाषा-साहित्य-संस्कृति में है। हिन्दुओं की एकता उन के एक धर्म में ही है। इस एकता के तत्व को पीछे करके ‘विविधता’ का प्रोपेगंडा नेहरूवादी तकनीक है, ताकि हिन्दू समाज के शत्रु साम्राज्यवादी मतवादों को बराबर की जगह दी जा सके। उसी लफ्फाजी को संघ-परिवार ने आमूल अपना लिया है।
सौभाग्यवश, हिन्दू समाज को छोड़ कर अरविन्दन अगली ही साँस में संघ की ‘हिन्दुत्व’ धारणा पर आ जाते हैं, कि यह विविधता का पोषण करने में लगा है। पर अरविन्दन संघ के आधिकारिक नेता-प्रवक्ता नहीं, इसलिए संघ-भाजपा नेताओं को ही अपने ‘हिन्दुत्व’ को पारिभाषित, व्याख्यायित करना चाहिए। जिन के लिए यह अब तक वोट लेने का एक मूल आधार रहा है, बस इतना ही। इस से अधिक उन की कथनी-करनी ने आज तक कुछ नहीं दिखाया। अरविन्दन ने भी संघ का कोई आधिकारिक संदर्भ, दस्तावेज उद्धृत नहीं किया। यह उन के द्वारा दाराशिकोह के प्रति संघ के ‘प्रेम’ के उदाहरण से भी दिखता है। परन्तु दाराशिकोह संघ-परिवार को प्रिय है, इस का कोई प्रमाण नहीं। विद्वान कहे जाने वाले दाराशिकोह की रचनाएं संघ के संगठनों, दर्जनों धनी थिंक-टैंकों, शोध-संस्थानों ने या सरकारों ने कभी प्रकाशित, प्रसारित नहीं की। केवल नाम लेना तो प्रोपेगंडा की पहचान है। फिर इस का, बल्कि स्वयं दाराशिकोह का मुसलमानों पर क्या प्रभाव पड़ा? यह सब लेखक के रडार से बाहर है। वे देख नहीं पाए कि जैसे शिवाजी, वैसे ही दाराशिकोह का नाम भी संघ-परिवार हिन्दुओं को भरमाने के लिए लेता है। उन के विचारों, सीखों, कामों के प्रति वह निपट सूरदास है।
अंततः अरविन्दन ने दाराशिकोह और किसी मिर्जा राजा के उदाहरणों से हिन्दुओं-मुसलमानों, दोनों में भलों और बुरों का बराबर संतुलन दिखाने का अनुचित काम किया। यह कम्युनिस्ट प्रचारकों की घृणित नकल है। जिहाद का पूरा इतिहास जिस में करोड़ों हिन्दुओं का सफाया हुआ, लाखों को गुलाम बनाकर बेचा गया. लाखों हिन्दू स्त्रियों-बच्चों के साथ दुराचार किया गया – यह सब संतुलित करके सब कुछ दो-तरफा दिखाना कम्युनिस्टों की धूर्तता रही है।
बहरहाल, जैसे भी अरविन्दन ने संघ परिवार के ‘हिन्दुत्व’ के बचाव की कोशिश की, वह संघ परिवार के नेताओं के आम विचारों, दलीलों, तरीकों के अनुरूप ही है। संघ में, गाँधीजी की तरह ही, इस्लाम से बिना लड़े, उस की चापलूसी करके, मुसलमानों को किसी तरह जीतने की लालसा है। यह अन्य बात है कि दशकों तक इसी के लिए वह गाँधी की हर तरह की आलोचना करता रहा था।
यदि संघ-परिवार के सब से हानिकारक कामों को गिनाया जाए तो यह लेख उन में से एक है। अरविन्दन जैसे अच्छे लेखकों, को जबरन पार्टी-प्रचारक, घटिया लेखक बनने को मजबूर करना। ऐसा अटपटा, पक्ष-मंडक लेख कोई विचारशील लेखक स्वेच्छा से शायद ही लिखे। दबाव या मजबूरी के सिवा ऊट-पटाँग लिखने की कोई वजह नहीं। दशकों से असंख्य कम्युनिस्ट लेखक ऐसा करते रहे, जो संघ-परिवार की सत्ताएं भी कराने की कोशिशें करती रही हैं। वह पूरी तरह विफल नहीं रहीं, यह लेख इस का उदाहरण है।
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