Friday, March 29, 2024

संघ-परिवार के बचाव का दयनीय प्रयास

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अरविन्द नीलकंदन के विचार             उस की आलोचना
Unfortunately, a new generation seems to be coming up infected with what can be called the ‘Goel-Elst’ syndrome.

 

अच्छा होता सीताराम गोयल और कूनराड एलेस्ट की बातों का खंडन करते!  मोहन भागवत जी के विचार के समकक्ष एक मंदिर के पुजारी की बात को क्यों चुना?
The new keyboard warriors, without the kind of dedication and hard-work that consumed the lives of Goel and Elst, have only imbibed their criticism for the Sangh and transformed that into hatred.

 

उन हिन्दुओं को लाँछन भी, जो आर.एस.एस. (संघ) की आलोचना करते हैं। वैसे, सीताराम गोयल को भी संघ-परिवार ने ही गालियाँ दी थीं। उन्हें ‘अमेरिकी एजेंट’ और ‘हिन्दू समाज का ठेकेदार’, ‘नेहरू विरोधी बकवास लिखने वाला’, आदि कहा था। उस पाप की आज तक क्षमा भी नहीं माँगी!

 

Even at the height of the Ayodhya movement, the significant contributions of Elst and Goel remained contained within a small group. इस का दोष संघ-परिवार से सत्ताधीशों के सिवा किसी का नहीं है! उन्होंने सैयद शहाबुद्दीन, अमर्त्य सेन, एम. जे. अकबर, कुलदीप नैयर, राजदीप, आदि को सम्मानित-पुरस्कृत किया – एल्स्ट-गोयल को करते तो इन्हें दुनिया जानती! इन की शिक्षाएं फैलतीं।
Mohan Bhagwat, the RSS Sarsanghachalak, has been criticised and trolled for saying that Hindus and Muslims of India share the same DNA.

Dr. Bhagwat is right in saying that Muslims and Hindus in India share a common DNA.

 

 

नहीं, आलोचना यह कहने के लिए नहीं, बल्कि इसी तरह की निरर्थक बातों से इस्लामी समस्या को सुलझा लेने के दावे पर हुई है।

 

 

लेकिन इस बात से इंकार किस ने किया था? मजे की बात यह कि संघ के मुस्लिम मित्रों में भी किसी ने उसे नहीं दुहराया। उस ख्वाजा इफ्तिखार अहमद ने भी नहीं, जिन की पुस्तक का विमोचन भागवत जी ने करते हुए वह बयान दिया था! यह तो अपनी ही बात पर खुद खुश होने जैसा हुआ, जिसे खुश करने कहा गया वह तो वैसे ही निर्विकार है।

 

What Dr. Mohan Bhagwat said comes from a position of strength while statements like that of Yati Narsinghanand  reveal fear and frustration, despite the veneer of bravado they may exhibit.

 

असुविधाजनक सचाई से बचना ताकत की नहीं, कमजोरी की निशानी है। ‘ताकत की स्थिति’ का कोई प्रमाण नहीं, केवल दावा किया है। जबकि उस बयान के दूसरे ही दिन मुस्लिम नेताओं ने भागवत का मजाक उड़ाया, जिस पर संघ नेता चुप रहे। दुश्मन/ विरोधी की चुनौती पर चुप रहना भीरुता का सबूत है।

भागवत जी की बातों की तुलना यति नरसिंहानन्द से करना बेढ़ब है। खासकर, जब सीताराम गोयल और कूनराड एल्स्ट को इस आलोचना ‘रोग’ का जनक बताया गया है। तुलना उन्हीं दोनों की बातों से करनी उचित थी।

 

Genetic purity, like cultural purity, is a myth.

 

अप्रासंगिक बातें
The Muslims of India are mostly converts from Hindu society

 

most Muslims in India, Afghanistan, Pakistan and Bangladesh share common ancestry with Hindus rather than with Muslims of Arabia.

 

 

अप्रासंगिक, जानी-मानी बातें। दुनिया के सारे ही मुसलमान कन्वर्ट हैं। खुद प्रोफेट मुहम्मद ने अपने ही कुरैश पगानों को कनवर्ट ही कराया था। जो कन्वर्ट नहीं हुए, उन्हें मार डाला – समस्या यह थी, और है। यानी परिवार के लोगों को भी मारा जा सकता है, यदि इस्लाम कबूल न करें। यह इस्लामी सिद्धांत-व्यवहार है।

 

कुरान (9-23,24) में साफ हुक्म, और धमकी है, ‘‘ओ मुसलमानों! अपने बाप या भाई को भी गैर समझो, अगर वे अल्लाह पर ईमान के बजाए कुफ्र पसंद करें। तुम्हारे बाप, भाई, बीवी, सगे-संबंधी, संपत्ति, व्यापार, घर – अगर ये तुम्हें अल्लाह और उन के प्रोफेट, तथा अल्लाह के लिए जिहाद लड़ने से ज्यादा प्यारे हों, तो बस इंतजार करो अल्लाह तुम्हारा हिसाब करेगा।’’ यही (58-22) में भी दुहराया है, कि किसी मुसलमान के लिए बाप, बेटा, भाई भी सदभाव के दायरे से बाहर है, यदि वे इस्लाम को न मानें।

 

In the modern context though, the reasons stated for conversion include ‘Islam being a more egalitarian religion’,

 

यह झूठी वामपंथी दलीलों को बेकार प्रचार देना है। कोई हिन्दू ऐसी बात नहीं मानता था। महात्मा गाँधी से यह सब शुरू हुआ, जिन्हें खुद संघ-परिवार अब पूजने पर लगा है। वह भी हिन्दुओं के टैक्स के करोडों रूपए सालाना बर्बाद करके! जबकि गाँधीजी की उन्हीं बातों के लिए पहले संघ-परिवार उन्हें दशकों कोसता रहा था।

 

Stressing the common origin of Muslims and Hindus in India is an important way of reaching out to the Muslims.

 

मुसलमानों की तरफ हाथ बढ़ाने की कमी कब रही है? आखिर गाँधीजी ने पूरे जीवन और क्या किया था! जैसा किसी तात्कालीन विद्वान ने कहा भी, कि गाँधीजी मुसलमानों के लिए ही जिए और उन के लिए ही मरे भी।

 

इसलिए ‘रीचिंग आउट’ की बातें वास्तविकता की झूठी प्रस्तुति, या जानबूझ कर आत्म-प्रवंचना है।

 

Hindutva is not an exclusive ideology. It is an inclusive national vision. A Hindutvaite does not want an Indian Muslim to be treated as a second-class citizen.

 

अच्छा हुआ, कि ‘हिन्दुत्वा’ और हिन्दू धर्म-समाज को अलग रखा है। संघ-परिवार के लोगों के लिए ‘हिन्दुत्ववादी’ विशेषण मीडिया में प्रचलित हुआ, और ला.कृ. अडवाणी ने इसे ले भी लिया। पर याद रहे, मुसलामनों को दूसरे दर्जे के नागरिक रखने (जिन्हें ‘वोट का अधिकार नहीं होना चाहिए’) की बात स्वयं संघ के ही एक विगत सर-संघचालक ने कही थी। तब अरविन्दन किसे लांछित करना चाहते हैं?  सामान्य हिन्दू समाज ने ऐसी कोई बात नहीं कही है।

 

Rather, he sees him as vulnerable to exploitation by forces of monopolistic expansion.

 

भारतीय मुसलमान के किस ‘एकाधिकारी विस्तारवाद द्वारा शोषण’ की बात हो रही है? इस्लामी मतवाद के अलावा कोई मुसलमानों को उस के लिए प्रेरित नहीं करता। अरविन्दन या संघ-परिवार के नेता इस का उल्लेख नहीं करते, जबकि ठीक उसी की चर्चा करने वालों को ही उल्टे ‘गोयल-एलस्ट रोग’ का शिकार बताते हैं – यह कैसी मनोरंजक विडंबना है!

 

A Hindutvaite wants to impress upon the Muslim Indian that the heritage of India—spiritual and cultural—is for his taking,

 

क्या उन्होंने यह कभी चाहा भी है? यह मान न मान, मैं तेरा मेहमान वाली बात हुई! मुसलमानों को क्या चाहिए, यह उन के नेता सैकड़ों सालों से आज तक साफ-साफ कह रहे हैं – निजामे मुस्तफा, पूरे भारत को मुहम्मदी शासन में लाना। इस सीधी बात से नजरें बचाकर अपनी काल्पनिक वैचारिक कसरतों का क्या मतलब? इस से केवल बेचारे अबोध, युवा हिन्दू भ्रमित होते हैं।

 

Shri Rama and Krishna, the Upanishads and the Gita, bhakti and yoga are also the heritage of the Muslim Indian.

 

ये मुसलमानों के कहने या न कहने के लिए है। बल्कि, देवबंदी और कितने ही भारतीय मौलानाओं ने साफ-साफ योगाभ्यास को हराम कहकर मुसलमानों को सदैव उस से दूर रहने की हिदायतें दी है।
In the RSS daily morning prayer, Kabir and Ras Khan have been venerated by of swayamsevaks, वह कहना गाँधीजी के ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ से बढ़कर है क्या?  उस का फल क्या हुआ? नोआखाली में मुसलमानों ने गाँधी को धमकी दी कि खबरदार जो कुरान का पाठ किया! तब गाँधी भाग के बिहार चले आए, जब कि वहाँ जाते हुए कहा था (6 नवंबर 1946) कि तब तक नहीं लौटेंगे जब तक नोआखाली में शान्ति नहीं होगी। ऐसे आत्म-प्रवंचक नाटकों से इस्लाम को बहलाना अपने को बेवकूफ बनाना है।

 

फिर, वैसी बातें कहना अपनी ही बातों पर खुद मोहित होना है। संघ के नेता यह नजरअंदाज करते हैं कि ऐसे मुसलमानों को काफिर कहकर मुस्लिम नेता घृणा और उपेक्षित करते हैं। किस इस्लाम मदरसे या सेमिनरी में कबीर या रसखान पढ़ाया जाता है?

 

Shirdi Sai Baba is worshipped in many Hindu houses despite a few obscurantist voices protesting the practice in recent times.

 

यद्यपि शिरडी साईं का मुस्लिम होना अप्रमाणिक है। फिर भी, तरह-तरह के कथित मुस्लिम संतों के मजारों पर हिन्दुओं का जाना उन के धोखा खाने, अपने धर्म की मूल चेतना से भटक कर यांत्रिक नकल का उदाहरण अधिक है। गौरव के बदले यह चिन्ता की बात है। इस चिन्ता को ‘मूर्खता’ कहना सचेत हिन्दुओं को ही लांछित करने का उदाहरण है।

 

Dr.Bhagwat is calling them (and quite a number of Hindus also) to free themselves from artificial prejudices and limitations imposed by religious doctrines. यह कथन शरीयत और सुन्ना के बारे में लेखक की शून्य जानकारी का संकेत है। इसीलिए, धर्म-अधर्म समभाव का भी उदाहरण। उन्हें बताना चाहिए कि इस्लाम और हिन्दू धर्म के ‘कृत्रिम दुराग्रह और सीमाएं’ क्या-क्या हैं? इस्लामी सिद्धांत के काफिर, जिहाद, जजिया, धिम्मी, शरीयत, मुलहिद, और सुन्ना के समरूप हिन्दू धर्म सिद्धांतों में कौन से कौन से दुराग्रह हैं? यह बताए बिना दोनों को एक झाड़ू से हाँकना एक लज्जाजनक आत्म-प्रवंचना है।

 

He is asking them to come together through commonness तुलना में क्या कांग्रेस और भाजपा में और ज्यादा ‘कॉमननेस’ नहीं? गाँधी-पूजा से लेकर पाकिस्तान विरोध, देशभक्ति और विकास तक?  फिर क्यों आर.एस.एस. उस के पीछे पड़ा रहा है? अनन्त विजय की चर्चित पुस्तक अमेठी संग्राम (पृ. 63-86) से जायजा ले सकते हैं कि संघ कैसी एकाग्रता से कांग्रेस को पीटने में लगा रहा है। ‘समान तत्वों’ पर ऐसा दोहरापन क्यों?

 

and not to alienate themselves into ghettos पुनः प्रमाण कि लेखक को शरीयत और सुन्ना की बिलकुल जानकारी नहीं। उन का अलग रहना न केवल मजहबी सिद्धांत है, बल्कि वे तो किसी संकुचित घेट्टो में रहने के बजाए सालों-साल हिन्दू जमीन, मील-दर-मील कब्जा कर रहे हैं। असली घेट्टो में तो हिन्दू शरणार्थी रह रहे हैं – कश्मीर से बंगाल, केरल से कैराना और मिजोरम तक से मार भगाए गए। लेखक वह नहीं देख सके?

 

 

through concessions to fundamentalist leadership of political Islam.  फंडामेंटलिस्ट होने में बुरा क्या है, भला? आखिर अपने सिद्धांत या मजहब की ‘मूलभूत बातों’ पर चलना तो बहुत अच्छा काम है, जब तक कि आप उस सिद्धांत/मजहब के मूल सिद्धांतों को हानिकारक नहीं साबित करते। वरना यह अनर्गल मुहावरा है, जिस से कुछ संप्रेषित नहीं होता।

 

 

A call for liberation is not appeasement.

 

यहाँ लेखक दोहरा मिथ्याचार कर रहे हैं।  क्या आपने स्पष्ट किया कि मुसलमान किस कैद में हैं? जब कैद की पहचान नहीं, तो मुक्ति, लिबरेशन किस से? मुसलमान तो किन्हीं मुस्लिम नेताओं का नाम तक नहीं लेते, संघ-भाजपा की तरह नेता भक्ति करना तो दूर रहा! वे केवल इस्लाम, मुहम्मद, और कुरान का नाम लेते हैं – क्या संघ-परिवार के नेताओं को उन के राजनीतिक माँगपत्रों को पढ़ने के लिए आँखें या उन के नारों को सुनने के लिए कान नहीं हैं?

 

दूसरे, ‘तुष्टीकरण’ तो संघ-परिवार के सत्ताधारियों के उन कामों को कहा जाता है, जो बरसों से हजारों करोड़ रूपय़ों के विशेष, नियमित अनुदान, संस्थान, विश्वविद्यालय, छात्रवृत्तियाँ, आदि केवल मुसलमानों को लक्ष्य करके दे रहे हैं। अब तो आर.एस.एस. स्वयं अपनी ओर से ‘‘मुस्लिम विधवाओं को पेँशन’’ देने की योजना चला रहा है।

 

Today, we have webinars and courses on Sita Ram Goel and Ram Swarup. This is because the political milieu has changed. यह घोड़े के आगे गाड़ी को लगाना हुआ। ये छिट-पुट विमर्श इसलिए हो पा रहे हैं क्योंकि नए मीडिया ने सस्ता साधन उपलब्ध कर दिया। वरना, संघ-परिवांर ने सीताराम गोयल व राम स्वरूप को तहखाने में दफन करने, रखने का पूरा उपाय किया थाः उस के किस फाउंडेशन, थिंक-टैंक, सरकार या नेता ने गोयल पर गोष्ठी की, या कभी श्रंद्धांजलि भी दी? यहाँ तक कि राम स्वरूप और सीताराम गोयल की जन्म-शताब्दी पर एक औपचारिक बयान, ट्वीट तक नहीं आया! उन्हीं नेताओं, संगठनों को इन स्वतंत्र विमर्शों का श्रेय देना निर्लज्जता की पराकाष्ठा होगी।

 

राजनीतिक वातावरण में बदलाव देशी-विदेशी घटनाक्रम में बढ़ती इस्लामी घटनाओं, दबदबे की प्रतिक्रिया और यहाँ राजनीतिक दलों के संयोग-दुर्योग भी हैं। संघ-भाजपा ने इस का फायदा भर उठाया, इस में कोई योगदान नहीं किया। बल्कि, उलटे वे इस्लाम की थोक-चापसूली में लगे रहे हैं। यह उन के अपने सचेत कार्यकर्ता मानते हैं।

 

That change came from the works of millions of nameless swayamsevaks. लाखों-लाख, ‘मीलियन्स’ स्वयंसेवक हैं भी, इस का क्या प्रमाण है?  कहाँ है उन की सूची, कोई रिकॉर्ड? यदि कोई कहे कि वे स्वयंसेवक कुल लगभग बीस हजार मात्र हैं – तो इस का खंडन करने के लिए अरविन्दन के पास क्या है?

 

They slept on railway platforms and bus stands; they cycled through the hot sun and torrents. If fortunate, they got heckled. If not, they got hacked.

 

यही काम दशकों से कम्युनिस्ट, तबलीगी, और जिहादी भी करते रहे हैं। क्या इसी से उन के काम-विचार सही हो गए?

फिर, इन दावों से लेख के शीर्षक का क्या औचित्य सिद्ध होता है?

And yes, in the morning they venerated Kabir and Ras Khan along with Thyagaraja and Basavanna; Ambedkar and Gandhi along with Savarkar and Shivaji.

 

क्या कांग्रेस के लोग पीढ़ियों से गाँधी का नाम नहीं जपते रहे हैं, और आज भी जपते हैं?

जबकि आर.एस.एस. ने पचासो वर्ष तक गाँधी को ‘मुसलमानों का एजेंट’, आदि कह-कह कर निंदित किया। उस ने कब गाँधी को अपने प्रातृ-स्मरण में जोड़ा, कब निंदा छोड़ी – क्या इस के बारे में लेखक कुछ बता सकते हैं?

दूसरी ओर, संघ सत्ताधारियों ने शिवाजी या सावरकार की किसी नीति या सीख को कभी लागू नहीं किया है। यह तो ऐसे महापुरुषों के नामों का यांत्रिक जाप या दुरुपयोग करना मात्र हुआ।

 

And standing on their sacrifices and the silent tears of their families, यह संघ के नेता-प्रचारक स्वयं कहते हैं, जैसा कि सारे कम्युनिस्ट, इस्लामी, तबलीगी भी अपने समर्पित कार्यकर्ताओं के बारे में कहते हैं। इस से क्या साबित होता है?
The thrill of adrenaline one derives from hatred, however informed that hatred may be, is not the joy of Dharma. यही मिला सीताराम गोयल या कूनराड एल्स्ट के लेखन में? या उन के अनेक शिष्यों, सहयोगियों – के. एस. लाल, श्रीकान्त तलाघेरी, आभास चटर्जी, अरूण शौरी, वीरेन्द्र पारीख, सुभाष काक, आदि में?
Hindu Dharma should be preserved not because it is the oldest; it should be preserved because it contains and nurtures spiritual diversity in all its complexity. यह धर्म की भी मूल बात नहीं है – सारी रामायण, महाभारत या उपनिषद में यह राजनीतिक लफ्फाजी नहीं मिलेगी।
All the challenges, as well as possibilities, that come with nurturing that diversity, define Hindutva.

 

इसे संघ-भाजपा नेताओं को पारिभाषित, व्याख्यायित करने के लिए कहना चाहिए जिन के लिए यह वोट माँगने का एक आधार रहा है। इस से अधिक उन की कथनी-करनी ने आज तक कुछ नहीं दिखाया। कोई संदर्भ दस्तावेज उद्धृत करें जिस में उन्होंने इस से अधिक कुछ संकेत भी किया हो
That is why Dara Shukoh, who definitely shared a lot of DNA with Aurangzeb, is dearer to Hindutva than Mirza Raja, a Hindu who tried to trap Chhatrapati Shivaji for the Mughal tyrant. दाराशिकोह संघ-परिवार को प्रिय है, इस का कोई प्रमाण नहीं है। विद्वान कहे जाने वाले दाराशिकोह की रचनाएं संघ के संगठनों, दर्जनों धनी थिंक-टैंकों, शोध-संस्थानों, शैक्षिक न्यासों या सरकारों ने कभी प्रकाशित, प्रसारित नहीं की। बस, नाम लेना तो केवल प्रोपेगंडा है। फिर, खुद दाराशिकोह का मुसलमानों पर क्या प्रभाव पड़ा?  यह सब लेखक के रडार से बाहर है। वे देख नहीं पाए कि जैसे शिवाजी, वैसे ही दाराशिकोह का नाम भी संघ-परिवार हिन्दुओं को भरमाने के लिए ही लेता है। उन के विचारों, सीखों, योगदानों के प्रति वह निपट सूरदास है।

 

फिर, दाराशिकोह मिर्जा और किसी मिर्जा राजा के उदाहरणों से हिन्दुओं-मुसलमानों में भलों और बदमाशों का बराबर संतुलन दिखाने की भी कोशिश की गई है! यह कम्युनिस्ट प्रचारकों की नकल है, और घृणित है।

 

 

यदि संघ-परिवार के सब से बुरे पापों को गिनाया जाए तो यह एक है। अरविन्दन नीलकंदन जैसे अच्छे लेखक, को जबरन पार्टी-प्रचारक, और घटिया लेखक बनने को मजबूर करना। ऐसा लेख कोई लेखक स्वेच्छा से प्रायः नहीं लिखता। दबाव या मजबूरी के सिवा ऐसा कृत्रिम पक्षमंडन लिखने की कोई वजह नहीं। असंख्य कम्युनिस्ट लेखक दशकों से ऐसा करते रहे, जो संघ-परिवार की सत्ताएं भी कराने की कोशिशें करती रही हैं। वह पूरी तरह विफल नहीं रहीं, यह लेख इस का उदाहरण है।

जहाँ तक ‘समान डीएनए’ जैसे बयानों की बात है, तो यह गाँधीजी की तरह बिना लड़े जीतने की लालसा है। जबकि दशकों तक उसी बात के लिए संघ गाँधी की हर तरह की आलोचना करता रहा था।

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